दिवास्वप्न
दिवास्वप्न
गिजुभाई बधेका
हिंदी अन॒वाद
काशिनाथ त्रिवेदी
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
[983घ &-23 /-()४३ | -9
पहला संस्करण : 99]
चोथी आवृत्ति : 997 (शक 79792
हिंदी अनुवाद 8 नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 499] [)9०950० थ[ुआ3 (थी)
रु. 49.00
निदेशक, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, ए-5 ग्रीन पार्क नयी दिल्ली-006 द्वारा प्रकाशित
भूमिका
बच्चों के शिक्षक को लाचारी और जहता के जिन बंधनों में उपनिवेशी शासन ने कोई डेढ सौ बरस हुए बांधा था, वे अभी कटे नहीं हैं । इस बीच स्कूली व्यवस्था के फैलाव के साथ शिक्षा देश के हरेक कोने में जा पहुंची है । अध्यापक की उदासीन मानसिक अवस्था को सहन करना इस प्रकार करोड़ों बच्चों की विवशता बन गया हि शायद ही कोई ऐसा अध्यापक होगा जो अपने बच्चों को आसपास की दुनिया से बेखबर रहकर जीना सिखाना चाहता हो । पर स्कूल की संस्कृति ही कुछ ऐसी बन गई है कि कीडों से लेकर सितारों तक दुनिया की तमाम चीजें कक्षा की पढाई से बाहर मानी जाती हैं । एक औसत शिक्षक यह मानकर चलता है कि उसका काम पाठ्यक्रम पढा देना और बच्चों को परीक्षा के लिए तैयार करना है । बच्चे की उत्सुकता का विकास शिक्षक न अपनी जिम्मेदारी में शामिल समझता है, न स्कूल॑ में ऐसी परिस्थितियां हैं जिनमें वह इस जिम्मेदारी को निभा सके । ,
यह स्थिति गुजरात के महान शिक्षाविद्र और बाल-शिक्षक गिजुभाई बधेका (]885-93 9) की पुस्तक “'दिवास्वप्न”” के पुनर्प्रकाशन और प्रसार के लिए एकदम अनुकूल है | यह पुस्तक पहली बार 932 में मूलत: गुजराती में प्रकाशित हुई थी और उसी वर्ष मध्य प्रदेश के यशी शिक्षाविद्र् काशिनाथ त्रिवेदी ने इसका अनुवाद हिंदी में स्वयं प्रकाशित किया था । सही काम की सफलता के लिए धैर्य ब्रिवेदी जी ने गांधी से सीखा था । “दिवास्वप्न'” सहित गिजुभाई के समूचे शिक्षा साहित्य के व्यापक प्रसार का उनका सपना आज सफलता के कुछ समीप पहुंचा है ।
पर शिक्षा में परिवर्तन लाने का सपना उस राह पर काफी संघर्ष करके ही सफल हो सकता है जिस पर गांधी, टैगोर और गिजुभाई आगे बढे थे । इन तीनों के शिक्षाविज्ञान का सार है बच्चे को स्वतंत्रता और स्वावलम्बन का माहौल बना देना । गिजुभाई ने 920 में अपने “बालमंदिर”” की स्थापना करके इस मूल सिद्धांत को एक संस्थागी आधार दिया और फिर अपने दैनिक व्यवहार व लेखन में उसके नाना आयार्मों को पहचाना । “दिवास्वप्न'” एक ऐसे शिक्षक की काल्पनिक कथा है जो
श भूमिका
शिक्षा की दकियानूसी संस्कृति को नहीं स्वीकारता और परंपरा व पाढ््यपुस्तकों की सचेत अवहेलना करके बच्चों के प्रति सरुस और प्रयोगशील बना रहता है । उसके प्रयोगों की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि मोंटेसरी में है, पर तैयारी और क्रियान्वयन ठेठ देसी है। (“दिवास्वन”” को पहते-पढ़ते मन बेरंग, धूल-धूसरित प्राथमिक शालाओं की उदासी को भेदकर उल्लास और जिज्ञासा की झटक में बह जाता है और उस समय का चित्र बनाने में लग जाता है जब देश के लाखों स्कूलों में कैद पढ़ी प्रतिभा बह निकलेगी और बच्चे अपने शिक्षक के साथ स्कूल के गिर्द फैली दुनिया का जायजा आनंदपूर्वक कक्षा में बैठकर ले सकेंगे ।
] मई 989 -कृष्ण कुमार अध्यक्ष, शिक्षा विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
मुझसे किसी ने कहा कि भारी-भरकम तात्त्विक लेखों के बदले यदि मैं कथा-शैली में शिक्षा-सम्बंधी अपने विचारों को सँजोऊँ तो कैसा हो ? मुझे प्रयत्न करने की प्रेरणा मिली और फलस्वरूप यह “दिवास्वप्न” रचा गया । दिवास्वप्नों के मूल में वास्तविक अनुभव हों तो वे मिथ्या नहीं जाते । यह दिवास्वप्न मेरे जीवंत अनुभवों में से उपजा है, और मुझे विश्वास है कि प्राणवान, क्रियावान और निष्ठावान शिक्षक अपने लिए भी इसको वास्तविक स्वरूप प्रदान कर सकेंगे । -गिजुभाई
प्रथम खंड
प्रयोग का आरम्भ
मैंने पशा और सोचा तो बहुत-कूुछ था, परन्तु मुझे अनुभव नहीं था । मैंने सोचा, मुझे स्वयं अनुभव भी करना चाहिए । तभी मेरे विचार पक्के बनेंगे । तभी यह मालूम होगा कि मेरी आज की कल्पना में कितनी सच्चाई है और कितना खोखलापन ।
मैं शिक्षा-विभाग के एक बड़े अधिकारी के पास गया और उनसे प्रार्थना की कि वह मुझे प्राथमिक पाठशाला की एक कक्षा सौंप दें ।
अधिकारी जरा हँसे और बोले-'रहने भी दो भाई ! यह काम तुमसे नहीं बनेगा । लहकों को पढाना, सो भी प्राथमिक पाठशाला के लड़कों को ! ऐसे काम में एडी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है । तुम ठहरे लेखक और विचारक । मेज-कुर्सी पर बैठकर लेख लिखना सरल है और कल्पना में पठा लेना भी सहज है, कठिन है प्रत्यक्ष काम करना और फिर उसे सिरे लगाना ।',
मैंने कहा - इसीलिए तो मैं स्वयं अनुभव करना चाहता हूँ। अपनी कल्पना में मुझे वास्तविकता लानी है ॥'
अधिकारी ने कहा -'अच्छा, यदि तुम्हारा आग्रह ही है तो खुशी से एक साल तक अनुभव करो । प्राथमिक पाठशाला की चौथी कक्षा मैं तुम्हें सौंपता हूँ ।॥ यह उसका पाठ्यक्रम है । ये उसमें चलने वाली कुछ पाठ्यपुस्तकें हैं, ये शिक्षा-विभाग की छूट्री आदि के कुछ नियम हैं ।'
मैंने आदर की दृष्टि से उन सब चीजों को देखा । पाठ्यक्रम हाथ में लेकर जेब में हे व और पाठ्यपुस्तकों को एक डोरी से बांधने लगा ।
ने कहो -'देखो, जैसे चाहो वैसे प्रयोग करने की स्वतंत्रता तो तुम्हें है ही; इसके लिए तो तुम आए ही हो । लेकिन यह भी ध्यान में रखना कि बारहवें महीने में परीक्षा सामने आ खड़ी होगी और तुम्हारा काम परीक्षा के परिणामों से मापा जाएगा।'
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मैं कक्षा में आया और लड़कों से कहा-आज अब और काम नहीं करेंगे । कल से अपना नया काम शुरू होगा । आज तो तुम सब छुट्री मनाओ ।'
'छुट्टी” शब्द सुनते ही लड़के 'हो-हो' करके कमरे से बाहर निकले और सारे स्कूल में खलबली मच गई । सारा वातावरण “छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी” शब्दों से गूंज उठ । लड़के उछलते-कूदते और छलॉगें भरते घरों की तरफ भागने लगे।
दूसरे शिक्षक और विद्यार्थी ताकते रह गए । यह क्या है?” प्रधानाध्यापक एकदम मेरे पास आए और ज़रा भौंहें तानकर बोले-'आपने इन्हें छुट्टी कैसे दे दी? अभी तो दो घंटों की देर है ।'
मैंने कहा- 'जी, लहकों की आज इच्छा नहीं थी । वे आज अव्यवस्थित भी थे । शान्ति के खेल में मैंने यह अनुभव किया था ।'
प्रधानाध्यापक ने कही आवाज में कहा-'लेकिन इस तरह आप बगैर मुझसे पूछे छुट्टी नहीं दे सकते । एक कक्षा के लड़के घर चले जाएँगे तो दूसरे कैसे पढेंगे ? आपके ये प्रयोग यहाँ नहीं चलने वाले ।'
उन्होंने ज़रा रोष में आकर फिर कहा-“अपनी यह इच्छा- विच्छा रहने दीजिए । शान्ति का खेल तो होता है मोंटेसरी शाला में । यहाँ प्राथमिक पाठशाला में तो चट तमाचा मारा नहीं और पट सब चुप हुए नहीं ! और फिर नियमानुसार सब पढते-पढाते हैं । आप भी उसी तरह पढायेंगे तो बारह महीनों में कोई परिणाम नजर आएगा । आज का दिन तो यों ही गया, और उल्लू बने, सो अलग ।'
मुझे अपने प्रधानाध्यापक पर दया आई । मैंने कहा-साहब, तमाचा मारकर पढाने का काम तो दूसरे सब कर ही रहे हैं और उसका फल मैं तो यह देख रहा हूँ कि लड़के बेहद असभ्य, जंगली, अशान्त और अव्यवस्थित हो चुके हैं | मैंने तो यह भी देख लिया है कि इन चार वर्षों की शिक्षा में लड़कों ने मानो तालियाँ बजाना और, “हा, हा! 'हू, हू” करना ही सिखा है ! उन्हें अपनी पाठशाला से प्रेम तो है ही नहीं । छुट्टी का नाम सुना नहीं कि उछलते-कूदते भाग गए !!
प्रधानाध्यापक बोले -/तो अब आप क्या करते हैं, सो हम देख लेंगे ।'
मैं धीमे पैरों और बैठे दिल से घर लौटा । लेटे-लेटे मैं सोचने लगा - काम बेशक मुश्किल है ! लेकिन इसी में ही मेरी सच्ची परीक्षा है। चिन्ता नहीं । हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । इस तरह कहीं 'शान्ति का खेल” होता है? मोंटेसरी-पद्धति में इसके लिए शुरू से कितनी तालीम दी जाती है? मैं भी कितना मूर्ख हूँ जो पहले ही दिन से यह काम शुरू कर दिया ! पहले मुझे उन लोगों से थोड़ा परिचय बढाना चाहिए । मेरे
प्रयोग का आरम्भ 5
लिए उनके दिल में कुछ प्रेम और रस पैदा होना चाहिए । तब कहीं जाकर वे मेरा कुछ कहना मानेंगे । जहाँ पढाई नहीं, बल्कि छुट्टी प्यारी है, वहाँ काम करने के माने हैं, भगीरथ का गंगा को लाना !
दूसरे दिन के काम की बातें निश्चित कीं और मैं सो गया । रात तो आज के और अगले दिन के काम के सपने देखने में ही बीत गई !
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पाठशाला खुली और मैं कक्षा में गया । लहके मुझे घेर कर खड़े हो गए और मौज में आकर, मज़ाकिया तौर पर, लेकिन बिना हरे, कहने लगे-'मास्टर साहब, आज भी छुट्टी दीजिए न ! आज भी, छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी !'
मैंने कहा अच्छी बात है, छुट्टी तो आज भी दूंगा । लेकिन सारे दिन की नहीं, दो घंटों की । पहले ठहरो, मैं तुमको एक कहानी सुनाता हूँ । तुम सब सुनो । बाद में हम
दूसरी बातें करेंगे ।'
मैंने तुरन्त ही कहानी शुरू की ।
एक था राजा, उसके सात रानियाँ थीं । हर एक रानी के दो- दो बच्चे थे- एक कूंवर और एक राजकुमारी ।
इतना सुनते ही हो-हल्ला मचाते हुए सब लड़के मुझे घेर कर बैठ गए । मैं कहानी कहते-कहते जरा रुका और बोला-'देखो सब अच्छी तरह बैठो । यों तो काम नहीं चलेगा ।'
सभी ठीक से बैठ गए और कहने लगे-'तो जल्दी कहानी कहिए न ! जल्दी कहिए आगे क्या हुआ?!
मैने मुस्कराते हुए शुरू किया
“उन सातों राजकुमारियों के सात-सात महल, और हर महल में सात-सात मोतियों के झाड़ !'
लड़के फटी आँखों कहानी सुनने लगे । सारी कक्षा में सन्नाटा था ।न कोई बोलता था, न हिलता था । प्रधानाध्यापक ने सोचा होगा, आज इस कक्षा में इतनी अधिक शान्ति क्यों है? बस, वे कक्षा में आ धमके । मुझसे बोले-'कहिए ,कहानी सुना रहे हैं?
मैंने कहा-'जी हाँ । कहानी और यह नए प्रकार का शान्ति का खेल, दोनों साथ-साथ चल रहे हैं ।'
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प्रधानाध्यापक वापस लौट गए । मेरी कहानी चल रही थी | उधर आसपास की कक्षाओं में बहा कोलाहल हो रहा था । मैंने कहा -'देखो, आसपास यह कैसी गड़बड़ हो रही है?' सब लड़कों ने उस कोलाहल के प्रति अपना तिरस्कार प्रकट किया । कहानी आधी खत्म हुई और मैंने कहा -“बोलो बच्चो, छुट्टी चाहते हो तो कहानी बन्द कर दूँ ? नहीं तो कहानी आगे चालू रखेूँ।' अब बोले-चालू, चालू ! हम छुट्टी नहीं चाहते ।' मैंने कहा -/अच्छी बात है, तो अब कहानी सुनो / लैकिन मैं बोला-“बीच में हम थोड़ी बातचीत कर लें? फिर घंटी बजने तक मैं कहानी ही सुनाऊँगा । एक लड़का बोला -'नहीं, बातचीत कल कीजिएगा । जल्दी कहानी सुनाइये ताकि पूरी हो ।' मैंने कहा --कहानी तो इतनी लम्बी है कि चार दिन तक चलेगी । सब-'ओहो ! इतनी लम्बी ! तब तो बड़ा मज़ा आएगा!! मैने जेब से रजिस्टर निकाला और नाम लिखना शुरू किया । सबने बारी-बारी से झटपट अपने नाम लिखवाये । फिर मैंने हाजिरी ली और कहा /दिखो , अब से हम कहानी शुरू करने से पहले हाजिरी भरेंगे, फिर कहानी कहेंगे ।'/ईतना कहकर मैंने जो कहानी छेड़ी, सो घंटी बजने तक चलती रही । समय पूरा हो चुका था, लेकिन लड़के कहने लगे - “अभी बैठिए और कहानी किहिए ।! मैंने कहा --बस-बस, अब कल ।' फिर पूछा-'कल छुट्टी या कहानी?” सब बोले “कहानी, कहानी, कहानी !” इतना कहते हुए बच्चे जाने लगे । कल के 'छुट्टी, छुट्टी, छूट्टी' शब्दों के बदले आज वातावरण में कहानी, कहानी, कहानी” शब्द गूँज उठे ! मैंने सोचा- चलो, आज का दिन तो सुधरा ! सच ही है कहानी एक अजब जादू है । सवा सोलह आने सच !
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दूसरे दिन सबेरे सब लहके मुस्कराते-मुस्कराते आए । मैं कक्षा में पहुँचा कि सब एक पर एक गिरते-पड़ते मुझे घेरकर बैठ गए । बोले -'मास्टर साहब, अब कहानी कहिए न !!'
मैंने कहा -'पहले हाजिरी, फिर बातचीत, और फिर हमारी कहानी ।'
प्रयोग का आरम्भ 7
जेब से खड़िया मिट्टी का टुकड़ा निकालकर मैंने एक गोलाकार बनाया और कह!-'देखो, रोज इस पर आकर बैठा करना / '्तब स्वयं बैठकर दिखाते हुए कहा - इस तरह । यह जगह मेरी । यहाँ बैठकर मैं कहानी कहूँगा ।'
सब बैठ गए । मैं भी बैठा । हाजिरी ली और कहानी शुरू की । सब उत्साहित थे । कहानी छेड़ दी । मंत्रमुग्ध पुतलों की तरह सब सुन रहे थे। बीच में कहानी रोक कर मैंने कहा -'कहो, कहानी कैसी लग रही है?
“बहुत अच्छी लग रही है।'
'जैसे तुम सबको कहानी सुनना पसन्द है, कया वैसे ही कहानी पढना भी पसन्द है?!
हाँ जी, हमको कहानी पढना भी पसन्द है । लेकिन ऐसी किताबें मिलती कहाँ हैं?”
“अगर मैं तुम्हारे लिए कहानी की ऐसी किताबें ला दूँ तो तुम पढोगे या नहीं?”
'पढेंगे, जरूर पढेंगे !”
इतने में एक चतुर लड़का बोला-'लेकिन आपको कहानी कहनी तो होगी ही । अपने आप पढने में वो बात कहाँ !'
मैंने कहा -'अच्छा ।' और कहानी आगे बढाई ।
घंटी बजी और मेरी कहानी अटक गयी । सब मुझे घेरकर खड़े हो गए | कुछ मुझे प्रेम से ताकने लगे । कुछ मेरे हाथ को धीरे-धीरे छूने और मन ही मन प्रसन्न होने लगे।
मैंने कहा-जाओ, अब भाग जाओ | छुट्टी हो चुकी, घर जाओ /
लड़के बोले-जी, हम नहीं जायेंगे । आप कहानी कहिए, शाम तक बैठेंगे ।”
लड़के गए और कुछ शिक्षक मेरे पास आए । कहने लगे-'भाई साहब, आपने तो खूब की । अब हमारी कक्षा के लड़के भी कहानी चाहते हैं । आजकल वे पढने में ध्यान ही नहीं लगाते । बार-बार यही कहते हैं, हम भी कहानी सुनने जाएँगे, नहीं तो आप ही कहानी कहिए ।॥'
मैंने कहा-आप कूछ कहते रहिए न !!
वे बोले-लेकिन कहना आता किसे है? कहें तो तब न, जब एक भी कहानी याद हो !!
मैं मूँछों में मुस्कराता रहा '
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दूसरे दिन रविवार था । मैं उस दिन साहब से मिलने गया ।
साहब ने कहा-'भाई, प्रधानाध्यापक कहते थे, तुम पूरे समय कहानी ही कहा करते हो ॥!
मैंने कहा-'जी हाँ, अभी तो कहानी ही चल रही है |!
साहब ने पूछा-'तो फिर प्रयोग कब करोगे? और अभ्यास कैसे पूरा होगा?!
मैंने कहा -'साहब, प्रयोग तो चल ही रहा है । अब तो मैं खुद अनुभव कर रहा हूँ कि विद्यार्थियों और शिक्षकों को एक-दूसरे के नजदीक लाने में कहानी कितनी अजब और जादू-भरी चीज है | पहले दिन जो मेरी सुनते तक नहीं थे, और जो 'हा-हा, ही ही' करके मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे, वे ही जब से कहानी सुनने को मिली है, तब से शान्त बन गए हैं । मेरी ओर प्रेम से देखते हैं । मेरा कहा सुनते हैं । मैं जैसा कहता हूँ, उसी प्रकार बैठते हैं । 'चुप रहो, गड़बड़ न करो' तो मुझे कभी कहना ही नहीं पड़ता ! और कक्षा में से तो निकालने पर भी नहीं निकलते ।'
साहब ने कहा -'अच्छा यह तो समझा, लेकिन अब नई रीति से सिखाना कब ्रुरू करोगे?!
मैंने कहा-'जी, सिखाने की यही तो नई रीति है । कहानी के द्वारा आज व्यवस्था सिखाई जा रही है; ध्यान का अभ्यास हो रहा है; भाषा-शुद्धि और साहित्य का परिचय दिया जा रहा है। कल कुछ दूसरी बातें भी सिखानी शुरू की जाएँगी ।'
साहब बोले-लेकिन देखना, कहीं कहानी-कहानी ही में सारा साल खत्म न हो जाए ।'
मैंने कहा --जी, आप इसकी चिन्ता मत कीजिए ।'
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कहानी के लिए कक्षा के विद्यार्थी गोलाकार जमकर बैठे थे । मैंने तख्ते पर लिखा:
आज का काम-हाजिरी, बातचीत, कहानी । हाजिरी भरने के बाद मैंने बातचीत छेड़ी । मैंने कहा-'लाओ देखें, तुम्हारे नाखून कितने बढे हुए हैं? सब खहठे होकर अपने हाथ तो दिखाओ ।'
हर एक लड़के के नाखून बढे हुए थे । नाखूनों में मैल भी खूब जमा था ।
मैंने कहा --अपनी टोपियाँ हाथ में लो और देखो, कैसी मैली और फटी-पुरानी हैं ।
/
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सबने अपनी टोपियोँ देखीं | किसी विरले की ही टोपी अच्छी थी ।
मैं बोला -'देखो, तुम्हारे कोट के बटन साबुत हैं?!
फिर मैंने कहा --आज और ज्यादा जांच नहीं होगी । कहानी में देर हो रही है ।' यह कहकर मैंने कहानी शुरू कर दी ।
कहानी के बीच में एक लड़के ने पूछा-'जी, कहानी की किताबों का क्या हुआ”!
मैंने कहा -एक-दो दिन में ले आऊँगा । हाँ, जो कहानी की किताबें पढना चाहते हों, वे अपने हाथ उठाएँ ।'
हर एक विद्यार्थी का हाथ उठा हुआ था ।
मैंने पूछा -'तुमने कहानी की जो-जो किताबें पढी हैं, उनके नाम तो बोलो ।/ कुछ लड़कों ने दो-चार कहानियाँ पढी थीं | वे चौथी कक्षा तक आ चुके थे, फिर भी उन्होंने पाठ्यपुस्तकों को छोड़कर और पुस्तकें बहुत ही कम पढी थीं ।
मैंने पूछा -तुममें से कोई मासिक-पत्रिका भी पढता है?” दो जनों ने कहा-जी, हम 'बाल-सखा' पढते हैं ।'
मैंने कहा -'अच्छी बात है । मैं कहानियाँ लाऊंगा और तुम सब पढना । इतनी अधिक कहानियाँ लाऊँगा कि तुम पढते-पढते थक जाओगे ॥'
सब बहुत ही प्रसन्न दिखाई पड़े ।
फिर कहानी आगे चली तो घंटी बजने तक चलती ही रही | छुट्टी हुई और मैंने कहा - भाई, एक बात सुनते जाओ । गोले पर बैठकर सुनो । कल ये नाखून कटवाकर आना । खुद काट सको तो खुद काट लेना, नहीं तो बाबूजी से कहना या फिर नाई आए तो उससे कटवा लेना ।!
एक बोला -'जी, मैं तो अपने दाँत से काट लूँगा ।'
मैंने कहा -'नहीं भाई, ऐसा मत करना । नाखून या तो नहनी से कटते हैं या छुरी से ।'
मैंने फिर कहा -'/एक तमाशा हम और करेंगे ।'
सब बोले -वह क्या ?'
'तुम नंगे सिर पाठशाला आया करो । यह गन्दी टोपी किस काम की? और हमें टोपी की जरूरत ही क्या है ?!
सब हँस पड़े । कहने लगे-'नंगे सिर मदरसे भी आ सकते हैं भला? प्रधानाध्यापक नाराज नहीं होंगे?!
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मैंने कहा -'कल से मैं नंगे सिर ही आऊँगा, और तुम सब भी आना ।'
लडके बोले - लेकिन बाबूजी मना करेंगे तो ?!
'तो कह देना कि यह फिजूल का बोझ है । गन्दी टोपी पहनने से तो न पहनना अच्छा है ।
मैंने आगे कहा-देखो, कोट के बटन जरूर लगवाते आना । ऐसा तो अच्छा नहीं दिखता / सब मन में विचार करते-करते घर जाने लगे ।
रास्ते में मुझे प्रधानाध्यापकजी मिले । कहने लगे-'अजी भाई साहब, तुम तो कुछ-का-कुछ ही कर रहे हो । ये सब ढोंग क्यों करते हो? नाखून काटो, बटन लगाओ, यह करो, वह करो । नये ढंग से पढाने आए हो, बेशक पढाओ ! ये काम तो मॉ-बाप के हैं। वही करेंगे । हमें क्या पड़ी है? और सुनो, लड़कों को नंगे सिर तो पाठशाला में आने नहीं दिया जा सकता । यह तो असभ्यता होगी । इसके लिए साहब के हुक्म की जरूरत है ।'
मैंने कहा -'साहब, पढाई की ये ही तो नई बातें और नई रीतियोँ हैं । मैले-कुचैले और बेढंगे लडकों की पहली पढाई और कया हो सकती है? आप ही देखिए न, जब मैंने उन लोगों से कहा तो सब-के-सब शरमाए तो सही ! उनमे यह ख्याल तो पैदा हुआ ही है कि इस तरह गन्दा रहना ठीक नहीं । मुझे तो विश्वास है कि आगे बहुत से छात्र सफाई से रहने की कोशिश करेंगे । रही टोपियों की बात, सो इस सम्बंध में मैं बड़े साहब का मत जान लूँगा । और अगर उनका हुक्म न मिला तो यह परिवर्तन नहीं होगा !!
मैं घर गया, भोजन किया और तुरन्त ही बड़े साहब के घर पहुँचा ।
“कहिए, आज इस समय कैसे?!
'जी, एक मामले में आपकी राय लेनी है ।'
'कहिए, क्या बात है?'
'क्या कक्षा में मैं और मेरे विद्यार्थी नंगे सिर नहीं आ सकते ?!
'क्यों, किसलिए?!
“उनकी टोपियाँ इतनी ज्यादा गन्दी और फटी-पुरानी है कि वे बिना टोपी के ही आएँ तो इसमें कया बुराई है? इस उमर में उनके सिर पर यह बोझ.न भी हो तो क्या हानि है?!
“लेकिन लोगों को यह बात विचित्र और हास्यास्पद नहीं मालूम होगी?'
'सो तो होगी ही । पर इस सम्बंध में आपके कया विचार हैं ?'
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'मेरे विचार में तो अपने इस प्रयोग के सिलसिले में हम ऐसी सामाजिक बातों को न छुएँ तो ठीक हो । हमें तो पाठशाला की चारदीवारी के अन्दर बैठकर यही देखना है कि आज की शिक्षा-प्रणाली में क्या है और उसमें हम क्या सुधार कर सकते हैं । टोपी-वोपी को तो छोड़ो भाई !'
“आपका यह विचार मुझे थोड़ा संकुचित तो लगता है, लेकिन मैं तत्काल ही इसके लिए आग्रह नहीं करूँगा । आरम्भ में मैं लोगों का और आपका विरोध मोल लेना नहीं चाहता ।'
मैंने आगे कहा-'यदि लड़के कक्षा में नंगे सिर रहकर काम करें, तब तो कोई एतराज नहीं होगा न?!
साहब ने कहा-'नहीं, बिल्कुल नहीं । कक्षा में तो आप मनचाहा सुधार कीजिए । ऐसा करते-करते यदि लोग उसको स्वीकार कर लें तो टोपी पहनाने का मेरा अपना आग्रह बिल्कुल नहीं है /
मैंने कहा -'बहुत अच्छा । अब एक दूसरी बात भी पूछे लेता हूँ । मुझे अपनी कक्षा में एक छोटा-सा पुस्तकालय बनाना है । उसके लिए मुझे रुपए मिल सकेंगे?”
साहब ने कहा -'रुपए? भला रुपए कैसे मिल सकते हैं? यह प्रयोग तो एक तरह से तुम्हारे और मेरे बीच का है । बजट में जितने रुपए हैं, उन्हीं से हमें शाला चलानी है । पाठशाला में तुम्हारी श्रेणी के हिस्से में जो आठ-बारह आने आएँ, उन्हीं से सब खर्च चलाना होगा ।
मैंने कहा -'तब कया हो?”
साहब बोले -'तो अभी इस विचार को रहने दो /'
मैंने कहा -'मेरे पास एक दूसरी योजना भी है। पर आप स्वीकार करें, तब ? और वह यह है कि हर एक छात्र को पाठ्यपुस्तकें तो खरीदनी ही पड़ती हैं । हिन्दी की चौथी पुस्तक, उसकी कुंजी और इतिहास की किताबें तो सब छात्र खरीदते ही हैं।'
'हॉ, सच है ।'
'तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि छात्रों से पाठ्यपुस्तकें खरीदवाई ही न जाएँ और उन पुस्तकों की कीमत में पढने योग्य अच्छी पुस्तकें खरीद ली जाएं और उनका एक पुस्तकालय बना दिया जाए ।'
'लेकिन पाठ्यपुस्तकों के बिना पढाओगे कैसे?”
जी, मैंने इसका वियार कर रखा है । पढाने की पद्धति के परिवर्तन पर मुझे पूरा
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विश्वास है । मैं आपको काम करके दिखाऊँगा और इस सम्बंध में आपको पूरा विश्वास भी दिला सकूँगा ।'
“बहुत अच्छा, मैं मानता हूँ । प्रयोग तुम्हारा है और परिणाम भी तुम्हीं को दिखाना है । लेकिन तुम्हें थोड़ी चेतावनी तो दे ही देनी चाहिए । देखो, छात्रों को आवारा मत बनने देना । प्रयोग में मैं तुम्हारे साथ तो हूँ, लेकिन ज़रा छाती धड़क जाती है ।'
मैंने कहा-'साहब आप विश्वास रखिए । एक बार देखिए तो सही ! हम प्रयत्न कर रहे हैं और ईश्वर ने चाहा तो सफलता भी हमारी ही होगी /
“अच्छा, लेकिन वर्ष के अन्त में तुम्हारे इस पुस्तकालय का क्या होगा? क्या छात्रों में वे किताबें बॉट दोगे?'
'जी हाँ, एक तरह से किताबें तो सारी कक्षा की ही होंगी, और वे कक्षा वालों को वापस मिलनी ही चाहिए । लेकिन यदि मैं मॉ-बाप को समझा सका कि वे पुस्तके वापस न माँगें और कक्षा के पुस्तकालय में ही रहने दें तो पुस्तकालय स्थायी बनेगा, और हर साल उसमें नई-नई किताबें बढती रहेंगी ।'
'पता नहीं तुम्हारी यह बात लोगों के गले उतरेगी भी ! बाकी विचार तो सुन्दर है। इसे एक अवसर तो अवश्य दे ही दो । लेकिन फिर भी सवाल यह उठता है कि पढाते समय तुम पाठ्यपुस्तकों के बिना अपना काम कैसे चलाओगे?!
जी, मैंने सब-कुछ सोच रखा है ।'
साहब से विदा लेकर मैं घर आया ।
प्र
दूसरे दिन पाठशाला खुली । मैंने सोचा था, शायद लड़के नंगे सिर आएँगे, लेकिन मेरी आँखे खुल गई ! मालूम हुआ कि सबके माँ-बाप ने वैसा करने से इन्कार किया है। उन्होंने कहा था-नंगे सिर भी कहीं जाते हैं? तुम्हारे शिक्षक तो पागल हैं !'
मैंने नाखून देखे, लेकिन दो-चार के ही कटे पाए । घर की अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ इसका कारण थीं । कोट के बटन टांकने की फुरसत किसे थी, जो टांकता? एक माँ ने तो यहाँ तक कहला भेजा था कि-'मास्टरसाहब, आप पढाने आए हैं, तो पढाइये ! पर ये नये-नये चोंचले क्यों निकालते हैं? हमें भी तो अपना कुछ कामकाज होगा न कि लड़के के नाखून ही काटते रहें ! इन लड़कों का तो ऐसा ही चलता रहता है ! हमें तो मरने की भी फुरसत नहीं, फिर आपकी यह बेगार कौन
प्रयोग का आरम्भ हि
ढोए !!
सुनकर मैं तो दंग ही रह गया ! सोचा था, पाठशाला खुलते ही कक्षा साफ-सुथरी मिलेगी, लेकिन उसके बदले मिले ऐसे-ऐसे सन्देश ! खैर, परवाह नहीं । मैंने सोचा -यों तो काम नहीं चलेगा । मुझे एक ओर तो मां-बाप का सहयोग प्राप्त करना होगा और दूसरी ओर ऐसी कोई योजना बनानी पड़ेगी, जिससे छात्रों को पाठशाला में ही इन बातों का शौक हो जाए ।
उस दिन मैंने उनसे कोई बातचीत नहीं की । बस छूटते ही कहानी शुरू कर दी और शुरू की हुई कहानी पूरी सुना दी ।
लड़के कहने लगे -'दूसरी कहानी !'
मैंने कहा --कल से नई कहानी शुरू करेंगे । आओ, आज हम थोड़ा खेल लें ।
'खेल खेंले?” लड़के आश्चर्य से मेरी तरफ ताकते रहे ।
'हॉँ, खेलेंगे । खेल खेलेंगे । कहो, तुम कौन-कोन से खेल जानते हो?!
'कई खेल जानते हैं । लेकिन उनको कक्षा में खेल कैसे सकते हैं?'
'क्यों नहीं खेल सकते?
'जी, यह तो पाठशाला का समय है । इस समय कभी लड़के खेलते हैं? किसी दिन खेलते देखा है आपने ?!
लेकिन हम तो खेलेंगे । तुम्हारे साथ मैं भी खेलूँगा । आओ, हम खेलें ।'
कुछ लड़के तो पुतले की तरह खड़े ही रहे । कुछ 'हू-हू' करते हुए खेलने दौड़े । इतने में ही हो-हल्ला मच गया । दूसरी कक्षा के लड़के भी कमरों में से झांक-झांक कर देखने लगे । मेरे साथी शिक्षक भी मेरी ओर ताकते रह गए ।
इसी बीच प्रधानाध्यापक एकाएक आए और मुझे टोका-'देखिए, यहाँ पास में कोई खेल नहीं खेले जा सकते । चाहें, तो दूर उस मैदान में चले जाइए । यहाँ दूसरों को तकलीफ होती है ।'
मैं लड़कों को लेकर मैदान में पहुँचा ।
लड़के बेलगाम घोड़ों की तरह उछल-कूद मचा रहे थे। 'खेल ! खेल ! हाँ, भैया खेल !'
मैंने कहा -'कौन-सा खेल खेलोगे?'
एक बोला -'खो-खो ।'
दूसरा बोला - “नहीं, कबड्डी ।'
तीसरा कहने लगा - 'नहीं, शेर और पिंजरे का खेल ।'
4 दिवास्वप्न
चौथा बोला- 'तो हम नहीं खेलते ।'
पांचवाँ बोला- 'रहने दो इसको, हम तो खेलेंगे ॥'
मैंने लडकों की ये बिगड़ी आदतें देखीं ।
मैं बोला-'देखो भई, हम तो खेलने आए हैं। 'नहीं' और “हाँ” और नहीं खेलते' और 'खेलते है” करना हो तो चलो, वापस कक्षा में चलें ॥'
लड़के बोले -'नहीं जी, हम तो खेलना चाहते हैं ।'
मैंने कहा--तो आओ, आज खो-खो खेलें । दो जने नेता बन जाओ और दूसरे दो सलाह करके आओ ।' लहके चले गए ।
फिर साथी तलाशने में बहुत देर लगी । एक कहता, मैं भीड़ बनता हूँ; दूसरा कहता, मैं बनता हूँ । आखिर मैंने दो जनों के नाम सुझा दिए और दो टुकहियों बना दीं, तब कहीं खेल शुरू हुआ ।
लेकिन यह तो गली-कूचों में खेलने वाले लड़कों का खेल निकला ! कोई जबान बन्द करके खेलता ही नहीं था । हर एक बिला वजह कुछ-न-कुछ बोलता ही रहता था: “हाँ, आओ मियॉजी, पकड़ो !,' “बस, पकड़ा, पकड़ा ! तुम्हारी क्या बिसात, जो तुम पकड़ सको!”, 'ऐ, ज़रा सम्भालना /, “अरे वाह ज़रा देखो तो सही, वह उधर से निकल जाएगा ।', “अरे, ध्यान रखो, ध्यान । देखो, मैं कहता न था कि वह निकल भागेगा? बड़े बातें करने लगे और उधर से वह निकल भागा ! लो, हार गए न!
मैंने सोचा- यह खेल का मैदान है या भाजी-बाज़ार ? खो-खो का खेल है, या हल्ले-गुल्ले की बाजी?
खेल खत्म होते ही जीते हुए लड़कों में से एक ने कहा-'लो हम जीते । हों, हम ही जीते ! तुमने मेहनत तो खूब की, लेकिन कुछ हुआ भी ? भीडू अच्छा था तो क्या हुआ?
सामने वाला चिढ़ा और चीख पड़ा - हाँ, मैं हारा ! तो बोलो, अब तुम क्या करोगे ?!
पहले वाला फिर बोला -'तुम हारे, हम जीते ! करेंगे क्या? जीते, जीते, जीते !'
हारने वाले के मुँह पर गुस्सा था । वह बोला-'बस, अब चुप भी रहोगे या नहीं? नहीं तो देखा है यह पत्थर ?
जीतने वाला बोला- 'देखा, देखा ! चिढाएँगे, चिढाएँगे और चिढ्मएँगे । यह हारा, यह हारा, यह हारा !”
प्रयोग का आरम्भ 5
उसका गुस्सा काबू में नहीं रहा और उसने उठा कर पत्थर फैंक मारा । पत्थर एक दूसरे छात्र के सिर में लगा और लहू की धार बह चली । मैंने सोचा -यह तो बुरा हुआ । वहीं अपना रूमाल फाड़कर मैंने पट्टी बाँधी । सब लडकों को अपने पास बुलाकर मैंने कहा -देखो जी, कल से खेल बन्द ॥'
सब कहने लगे-'लेकिन साहब,यह तो इनकी लड़ाई थी, इसमें हमारा क्या कसूर ?'
मैंने कहा-'तुम्हें मेरी दो बातें मंजूर हों तो मैं खेल खिलाऊँगा ।'
सब बोले-'मंजूर हैं, मंजूर हैं !'
मैंने कहा -'पहली बात तो यह कि खेलते समय कोई बिना कारण न बोले । जो बोले, वह हट जाए ।'
सबने कहा -“मंजूर है ।'
'दूसरी बात यह कि खेल में हारने-जीतने की बात ही नहीं । खेल है, एक बार हम कमजोर रहे, तो दूसरी बार दूसरा । इसमें हम हारे और तुम जीते की बात ही क्या है? खेलने का मतलब है, खेलना, कूदना, दौड़ना और मौज करना । हारना और जीतना और फिर सिर फोडना, इसकी क्या जरूरत ?'
सब बोले - हमें यह भी मंजूर है ।'
हम सब खेल-कूदकर पाठशाला में आए । साथ में सिर फूटा हुआ वह लहका भी था । दूसरे शिक्षक और लड़के उसको देखने के लिए बाहर आए । एक मसखरे लड़के ने कहा -'क्यों, कैसा खेल खेला?”
दूसरा बोला -'अरे भाई, ये तो फाग खेलने गए थे /'
छुट्टी हुई और शिक्षक और प्रधानाध्यापक मुझसे मिले । एक शिक्षक ने कहा -'कहिए, आज तो बड़ा युद्ध करवा दिया आपने ?!
दूसरे शिक्षक बोले -'अजी साहब, ये खेल-वेल आप रहने दीजिए । ये तो बन्दर हैं, बन्दर ! इन्हें तो शाला की चार-दीवारी के अन्दर ही रखिए, रटोइए और पढाइए । आप इनको आजाद कर देंगे तो ये सब एक-दूसरे का सिर फोड डालेंगे । गलियों में रोज क्या होता है, आप जानते नहीं?!
प्रधानाध्यापक बोले -'मैं सोच ही रहा था कि आज जरूर कुछ घटेगा, लेकिन ठीक ही तो है | इन महाशय को एक बार अनुभव की जो आवश्यकता है । बिना उसके ये सहज ही चुप नहीं बैठेंगे । कहीं पाठशाला में भी खेल खिलाए जाते हैं ?!
(मैंने कहा -'साहब, खेल ही तो पढ़ाई है । दुनिया की बड़ी-बड़ी शक्तियाँ खेल के
6 दिवास्वप्न
मैदान पर ही पैदा हुई हैं । खेल का मतलब है, अनुशासन ।
प्रधानाध्यापक बोले -'तभी तो मारपीट हुई और सिर फूटा ।'
बातचीत चल ही रही थी कि इतने में घायल लड़के के पिता लाल-पीले होते हुए आ पहुँचे । बोले-'हमें ऐसी पढाई की जरूरत नहीं । देखिए, इसका यह सिर फटा पड़ा है। कहाँ हैं, प्रधानाध्यापक? किसने मारा है इसे ?'
मैंने कहा-'देखिए महाशय, लड़के खेलने गए थे, वहाँ आपस में ये लह पड़े और इसे चोट लग गई ।'
पिता ने कहा-'तो इसको खेलने की इजाजत किसने दी? पाठशाला में पढाई होती है या खेल ? ये सारा दिन गली-कूचों में खेला ही करते हैं न ? आप लहके को पढाना चाहते हों तो भेजूँ, नहीं तो बन्द कर दूँ ।”
मैं चुपचाप सुनता रहा ।
प्रधानाध्यापक बोले -'भाई साहब, सुनिए ! ये महाशय हमारे एक नए शिक्षक हैं और पढाई के नए-नए प्रयोग करते हैं। आज इन्होंने खेल का एक प्रयोग किया था । यह सिर की चोट उसी का परिणाम है ।!
लड़के के पिता बोले-मुझे आपके इन प्रयोगों की जरूरत नहीं । लड़के को अच्छी तरह पढाना हो तो पढाइए, नहीं तो हटा लूँ ।'
दूसरे सब शिक्षक मूँछों में मुस्करा रहे थे । ऐसी स्थिति में मैं भला क्या बोलता?
घर गया । खाना अच्छा नहीं लगा । कमरे में जाकर बैठा और सोचने लगा-भई, यह तो एक आफत ही खड़ी हो गई ! खैर । उन्हें खेल के नियम तो बताए ही हैं, और भी बताऊँगा । बाकी, खेल तो खिलाने ही होंगे । मेरे विचार में तो खेल ही सच्ची पढाई है।
लेटे-लेटे एक विचार आया - मां-बाप की एकाध सभा क्यों न कर लूँ? उनको खेल का महत्त्व क्यों न समझाऊँ? मैं उनसे स्वच्छता और व्यवस्था के बारे में सहयोग की प्रार्थना भी करूँगा । वे लोग मदद नहीं करेंगे तो मैं अकेला कर ही क्या सकूँगा? क्या अपने बच्चों के लिए वे इतना भी नहीं करेंगे? हम शिक्षक लोग मां-बाप से सहयोग की प्रार्थना क्यों नहीं करते? यह दोष तो हमारा ही है । तो कल ही अभिभावकों की सभा क्यों न बुला लूँ?
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सभा जुही । पर इसको सभा कहा भी जाए या नहीं? चालीस मॉ-बाप के नाम पत्र
प्रयोग का आरम्भ 37
भेजे गए थे, पर कूल सात अभिभावक ही आए थे । मेरी निराशा की सीमा नहीं रही । मैंने भाषण की बढही अच्छी तैयारी की थी । पर क्या करता? आखिर मैंने अपना भाषण शुरू कर ही दिया । सोचा, हमारा काम तो प्रयत्न करना है। भाषण का भी यह एक प्रयोग ही सही !
एक घंटे तक मैंने बड़ी गम्भीरता-पूर्वकत भाषण दिया । सात सज्जनों में से एक को घर से बुलावा आ गया और वह चले गये । दूसरे दुविधा में फँसे मेरी बातें सुनते रहे । बातें सब महत्त्व की थीं और उनको समझाना बहुत जरूरी था ।
मैंने उन्हें सच्ची और झूठी पढाई का भेद बढ़ी बारीकी से समझाया । मैंने उन्हें बताया कि आध्यात्मिक उन्नति का स्वच्छता के साथ क्या सम्बंध है । मैंने उन्हें खेल और चरित्र-निर्माण की जंजीर भी जोहकर बताई । मैंने उन्हें अन्त॒:स्थल से उगने वाले सच्चे अनुशासन की महिमा और उसका महत्त्व समझाया, और आजकल की प्रचलित शिक्षा-पद्धति का और अनुशासन का खंडन किया ।
लेकिन यहाँ तो चिकने घड़े पर पानी डालने वाली मिसाल थी । बेचारे दो-चार अभिभावक जो मारे शरम के आ गए थे, वे भी घर जाने को उतावले हो रहे थे । भाषण खत्म होते ही वे भी चले गए ।
रह गए हम शिक्षक और हमारे अधिकारी । साहब ने ज़रा हँसकर कहा -'लक्ष्मी शंकरजी ! यह तो भैंस के आगे बीन बजायी गई ! भई, तुम्हारी इस फिलॉसफी को समझता कौन है ?!
पीछे से किसी शिक्षक ने धीमी आवाज में कहा-'अजी, मूर्ख है, मूर्ख !'
मुझे अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन मैं ज़ब्त कर गया । मैंने मन ही मन यह अनुभव भी किया कि मैं अभी थोड़ा 'पठित मूर्ख” तो जरूर हूँ | मैं भी तो नहीं जानता कि साधारण लोगों के सामने भाषण कैसे करना चाहिए ।
सब शिक्षक हँसते-हँसते घर चले गए ।
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दस-बारह दिन बीते और मैंने पुस्तकालय के काम को हाथ में लिया । कहानियाँ बहुतेरी कही जा चुकीं थीं । लड़के चौथे दरजे के थे । अब उनके हाथ में पुस्तकों के आने की जरूरत थी।
मैंने लहकों से कहा-'कल चौथी पुस्तक और इतिहास के दाम लेते आना । यहीं से सब प्रबन्ध करेंगे ।'
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दूसरे दिन एक लड़का चौथी किताब और इतिहास लेकर ही आ गया । कहने लगा -'जिस दिन मैं चौथी में चढ, उसी दिन पिताजी ने ये खरीद ली थीं ॥'
दूसरा बोला-'मेरे बड़े भाई के पास ये किताबें थीं । इन्हें ले आया हूँ।'
तीसरे ने कहा -'जी, मेरे लिए तो बम्बई से मेरे फूफा किताबें भेजने वाले हैं । यहाँ से नहीं ली जाएँगी /'
एक और लड़के ने कहा-'मेरे बाबूजी पैसे देने से इन्कार करते हैं । कहते हैं-'किताबें हम दिला देंगे ।'
मैंने सोचा -मार डाला ! कल्पना में तो पुस्तकालय बनाना आसान था, लेकिन वास्तव में काम बड़ा टेढा है । कुछ विद्यार्थी पैसे भी लाए थे । मैंने पैसे रब लिए और रसीद देकर लहकों से कहा-'अच्छी बात है ।'
दूसरे दिन लड़के कहने लगे-'हमारी चौथी पुस्तक ? हमारा इतिहास ?'
मैंने कहा -तुम्हारे पैसों से मैं कहानी की ये नई किताबें लाया हूँ | तुम कहते न थे कि तुम्हें कहानी की किताबें पढने में मज़ा आता है?'
लड़के बहुत खुश हुए । अच्छे-अच्छे रंगीन गत्तों और चित्रों वाली किताबें देखकर वे उन पर टूट पढ़े ।
मैंने कहा -'हमारे पास तो अभी सिर्फ पन्द्रह किताबें हैं । पन्द्रह जने पढ सकेंगे । बाकी के बीस मेरे पास आ जाएँ और मैं जो पब्ता हूँ, उसको सुनें ।” गड़बड़-धोटाले से बचने के लिए मैंने कहा -'पहले पन्द्रह विद्यार्थी किताबें पढें और बाकी के सब मेरे पास आएँ |
पन्द्रह जनों ने पन्द्रह किताबें उठा लीं और उन पर भूखे बाघ की तरह टूट पढ़े । मैंने कहा -'देखो, एक किताब पढ चुको तो मेज पर लाकर रख दो, और दूसरी वहाँ पड़ी हो तो उठा ले जाओ । इससे एक-एक करके तुम सबको सब किताबें पढने को मिल जाएँगी ।'
दूसरों को मैंने अपने पास बिठा लिया और आदर्श-वाचन शुरू किया । मैं प्रफुल्ल भाव से भाव-भंगिमा सहित पढने लगा । लेकिन उन पन्द्रह जनों के पढने की आवाज़! ओह ! ज़रा रुक कर मैंने कहा-'अरे भाई ! तुम सब मन में पढो । हमें कुछ दिक्कत होती है ।/ कुछ देर के लिए शोर कम तो हुआ, लेकिन उन्हें मूक वाचन की आदत ही नहीं थी । वे जोर से ही पढ्य करते थे । कुछ देर धीमे पठ्कर वे फिर जोर से पढने लगे । मैंने उन्हें बरामदे में अलग-अलग बैठकर पढने को कहा और मैं अन्दर रहा ।
प्रयोग का आरम्भ 49
आदर्श-वाचन खूब चला । कहानी रोचक थी, इसलिए सबने दिलचस्पी के साथ सुनी । घंटी बजने तक पुस्तक-वाचन और आदर्श-वाचन होते रहे और फिर हम घर की तरफ चल दिए
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कहानी और खेल, पुस्तकालय और आदर्श-वाचन, स्वच्छता और व्यवस्था की खटपट करते-करते दो-तीन महीने बात की बात में बीत गए ।
मैं अपने काम का हिसाब लगाने बैठा । जो काम हो चुका था, उस पर एक नजर दौड़ा गया । मुझे पता चला कि अभी तो पाव सेर में पहली पूनी भी नहीं कती है । पाठयक्रम के हिन्दी, गणित, इतिहास और पदार्थ पाठ आदि विषयों में से तो कुछ हुआ ही नहीं था । दूसरी कक्षाओं में तो बहुत-कुछ हो चुका था और वर्ष के अन्त तक तो मुझे भी यह सब करके दिखाना ही था । मेरे प्रयोग की शर्त भी यही थी । खैर, यह सब तो ठीक ही है । पर मैं क्या-क्या कर चुका हूँ, सो तो देखूँ? कहानी सुनाने में मुझे खूब सफलता मिली है । इसके कारण लड़के काफी व्यवस्थित हुए हैं । लेकिन अभी चम्पकलाल और रमणलाल को कहानी अच्छी नहीं लगती । रामजीवन और शंकरलाल को कहानी बिल्कुल सरल मालूम पड़ती है । कहानी के समय राघव और माधव आँखें चलाया करते हैं, उँगलियों मटकाया करते हैं और दूसरों का मुँह चिढाया करते हैं । इसका इलाज करना तो अभी बाकी ही है | हाँ, यह सच है कि खेल खिलाने के कारण बालक अब मेरे साथ खुलकर बातें करते हैं । वे मुझे अपना मानने लगे हैं, मुझसे डरते नहीं और खेल के बाद सब मेरा आदर्श-वाचन बड़े ध्यान से सुनते हैं। लेकिन अभी खेल की अव्यवस्था और शोर में नाम-मात्र की ही कमी हुई है । मेहनत तो खूब करता हूँ, लेकिन अभी रास्ता तय नहीं हो पाया है।
वाचनालय में अभी थोडी किताबें हैं । अब तक मैं मां-बाप के गले यह बात उतार ही नहीं सका हूँ कि पाठ्यपुस्तकों के बदले पुस्तकालयों की रचना महत्त्व की है। मैं सोचता था कि भाषण देकर मॉ-बाप को समझाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा । लेकिन हमारे अभिभावकों ने तो केवल यही एक रट लगा रखी है कि 'पढा दो ।' दूसरी कोई बात सुनने की न तो उनको फुरसत है और न वह उनकी समझ में ही आती है ! चिन्ता नहीं । यह सब तो लगकर काम करने से ही होगा । आज नहीं, तो कल । अभी मेरे पास समय भी तो है।
मैंने आगे सोचा-भई, यह प्रयोग तो बहा महाभारत काम निकला ! जितनी
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अधिक हमारी कल्पना, ज्ञान और आदर्श, उतनी ही गम्भीर और बड़ी हमारी परेशानी ! मुझे कई सवाल सता रहे थे । सफाई के सम्बंध में अभी कुछ हुआ ही नहीं था । टोपियों वैसे ही पड़ी थीं। कपड़े एक-दो दिन तक तो स्वच्छ पहनें, लेकिन फिर वही पुराना ढर्रा शुरू हो गया । नाखून भी फिर फावड़े की तरह बढने लगे थे । इन कामों के पीछे पड़े बिना छुटकारा नहीं था । चूँकि समाज में नई आदत डालनी है, इसलिए यह काम धीरज और बार-बार करने से ही सिद्ध होगा ।
फिर अकेले लड़कों की ही चिन्ता तो है नहीं । बड़े साहब भी तो अब कुछ उतावली मचाये हुए हैं । उनके भी तो अफसर और विरोधी रहते हैं । वे यश के भागीदार तो बनना चाहते हैं, लेकिन परिणाम भी जल्दी चाहते हैं और मुझे मदद करने की उनकी शक्ति भी तो सीमित ही है !
मेरे साथी शिक्षकों का मुझमें जरा भी विश्वास नहीं । वे तो मुझे निरा मूर्ख समझते हैं । और हाँ, शायद मैं मूर्ख हूँ भी । वैसे तो अनुभवहीन ठहरा लेकिन उनकी इन मान्यताओं को और सिखाने की इन रीतियों को भई मैं तो हाथ जोड़ता हूँ । इन्हें देखकर मुझे तो बस कैंपकँपी ही छूटती है । इससे तो मैं जो करता हूँ, वही लाख दरजे ठीक है । मेरे विद्यार्थी मुझ देखकर भाग तो नहीं जाते । वे मुझसे पर्याप्त प्रेम करते हैं। वे मेश आदर भी करते हैं। आज्ञा भी मानते हैं । इन शिक्षकों को देखकर तो इनके छात्र भाग खह्ठे होते हैं और पीठ पीछे इनकी नकल करते हुए मैंने उन्हें अपनी आँखों से देखा है ! एक भी लड़का ऐसा नहीं जो शिक्षक के पास जाकर प्रेम से खड़ा हो सके और प्रेम से बातचीत कर सके । वे कक्षा में तो चुपचाप बिना हिले-डुले बैठते हैं, पर जब बाहर निकलते हैं तो इतना ऊधम मचाते हैं कि पूछो न ! अपने विद्यार्थियों को मैंने उचित स्वतंत्रता दी है । वे कक्षा में जो थोड़ी गडबड़ कर लेते हैं, उससे अधिक गड़बड़ बाहर कभी नहीं करते । लेकिन मेरे साथी तो मुझ पर यह आरोप लगाते हैं कि मैं लड़कों को बिगाड़ रहा हूँ, उनको उद्दण्ड बना रहा हूँ- केवल कहानियाँ सुनाता रहता हूँ और पढाता बिल्कूल नहीं । खेल-खेल में उलटे उनको आवारा बना रहा हूँ । अच्छा, देखा जाएगा । मेरे विचार में तो ये खेल और ये कहानियाँ ही आधो-आध शिक्षा हैं !
यह सब होते हुए भी मुझे कभी भूलना नहीं चाहिए कि मेरा काम विकट है । मुझे तो यह मानकर ही अपना काम करते रहना चाहिए ।
टनू-टन् बारह बजे और मेरी विचारधारा टूटी । मैंने कहा- 'हे भगवन् ! अन्तिम